उत्तर: प्रारंभिक भारतीय प्रशासकों व इतिहासकारों द्वारा विश्वास प्रस्तुत किया जाता था कि वे अंग्रेजी राज्य के प्रसार से भारत पर अनुग्रह कर रहे है। उन्होने तथाकथित दैवीय आदेश से सभ्यता के प्रसार का बीड़ा उठाया था। उनके अनुसार तत्कालीन दशाओं में संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप अंधकार युग में जी रहा था, जो कुरूतियों से भरा पड़ा था। भारतीय अर्थव्यवस्था मृतप्राय: व राजनीति अस्थिर थी जिसे अंग्रेजी शासन की नितांत आवश्यकता थी।
उपर्युक्त औपनिवेशिक व्याख्या को अक्सर स्वीकार कर लिया जाता हैं जो कि एकपक्षीय और अतिश्योक्तिपूर्ण है। सत्य यह है कि अंग्रेजी शासन की स्थापना सुदृढ़ साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था को सुचारु रखने हेतु स्वार्थवस उठाया गया कदम मात्र था।
एक सभ्यता के कथित अंधकारयुग में होने मात्र से दूसरी सभ्यता को यह अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता कि वह उसे अधीन कर ले और ऐसा भविष्य प्रदान करे जहां हर कार्य 'शासक सभ्यता' की राजनीतिक व आर्थिक मंशाओं से किया जाता हो।
जॉन डिकिन्सन की अंग्रजी शासन की वटवृक्ष से तुलना तथा जे.जे. सुंदरलैण्ड का अंग्रजों द्वारा किए गए सांप्रदायिक बंटवारे पर कथन अंग्रेजी शासन के अधीन शोषित और दरिद्र भारत, जिसे जाति के स्थान पर धर्मों में बांट दिया गया, का चित्र प्रस्तुत करते है।
कई भारतीय विद्वानों व युरोपीय लेखकों द्वारा अंग्रेजी साम्राज्यवाद को ही भारत की दरिद्रता व इसके 'विफल आधुनिकीकरण' हेतु उत्तरदायी माना गया है।
सार रूप में कहा जा सकता है कि कथित 'अंग्रेजी शासन का वरदान' भारत के लिए महत्त्व रखता है क्योंकि जाने—अनजाने अंग्रेजी कार्यों ने भारतीयों को उस स्तर तक अवश्य पहूंचा दिया गया जहां से उपनिवेशवाद के विरुद्ध आवाज़ प्रबल की जा सकती थी और इसी का परीणाम अंतत: साम्राज्यवाद का अंत था।
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